अंजोरी, आज अन्यमनस्क क्यों हो ?
कजराई-सी आँखों में
'रात्रि' की कनीनिका में
समाया है अब्द का अस्तित्व
जो माँग रहा है तुमसे
क्षण भर का साथ
अंजोरी, तुम आज अन्यमनस्क क्यों हो ?
इस पार से जो देखा
अस्पष्ट दाग चाँद का
इतना कुत्सित नहीं, सच.
कुछ ठंडक तुम देती
कुछ उष्णता जीवन से लेती
अंजोरी, तुम आज अन्यमनस्क क्यों हो ?
कुआशा से कुपित
अस्थिर, अबाध्य हृदय
चाहता है पीना दो घूँट
उस पूर्णिमा की कलसी से.
अब तक नहीं लाई तुम अंजुलि भर ?
अंजोरी, तुम आज अन्यमनस्क क्यों हो ?
Anjori aaj anyamanaska kyon ho?
Kajrai si ankhon mein
'Raatri' ki kaninika mein
samaya hai abd ka astitva
jo mang raha hai tumse
kshan bhar ka saath
Anjori, tum aaj anyamanaska kyon ho?
Is paar se jo dekha
aspasht daag chand ka
itna kutsit nahin, sach.
Kuchh thandak tum deti
kuch ushnata jeevan se leti
Anjori, tum aaj anyamanaska kyon ho?
Kuasha se kupit
asthir, abadhya hriday
chahta hai peena do ghoont
us poornima ki kalsi se.
Ab tak nahin layi tum anjuli bhar?
Anjori, tum aaj anyamanaska kyon ho?
बहुत सुन्दर....चित्र और कविता दोनों!!
ReplyDeleteधन्यवाद अभी जी
Deleteसुंदर रचना !!!
ReplyDeleteजानते हुए भी अंजोरी इस प्रश्न का उत्तर दे पाएगी क्या अपर्णा ??
मामी, यही तो सुन्दर बात है कल्पना की। प्रश्न और उत्तर दोनों ही कल्पना के पास होते हैं। बस दिल से निकले ख्यालों की एक उड़ान भरने की देर है
Deleteकल्पना की उडान और मन के अनमनेपन की अभिव्यक्ति आपकी कविता में है।
ReplyDeleteजी. समय निकालकर इस कविता को पढ़ने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया शिंदे जी
Deleteजय जय
ReplyDelete''Aparna जी'' सुन्दर प्रस्तुति
आभार अभिषेक जी
Deleteबहत ही सुंदर प्रस्तुति अपर्णा जी , आपको बहुत बधाई ।
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत शुक्रिया अन्नपूर्णा जी
Deletewahh khubsurat rachna .. anupam .. shubhkamnaye
ReplyDeleteइस पार से जो देखा
अस्पष्ट दाग चाँद का
इतना कुत्सित नहीं, सच.
कुछ ठंडक तुम देती
कुछ उष्णता जीवन से लेती
अंजोरी, तुम आज अन्यमनस्क क्यों हो ?
सराहना के लिए शुक्रिया सुनीता जी
Deleteबहुत बहुत आभार आपका यशोदा जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ......
ReplyDeleteshukriya Upasana ji
Deleteबढ़िया
ReplyDeletedhanyavad Suman ji
DeleteSundar prstuti,
ReplyDeleteVinnie,
Vinnie ji thank u so much ...bas isi tarah mera hausla badhate rahiye
Deleteचाहता है पीना दो घूँट
ReplyDeleteउस पूर्णिमा की कलसी से.
सुंदर रचना
sarahna ke liye bohat bohat shukriya Shorya ji
Deleteआपकी रचनायें मन को बहुत सुकून सा देती हैं ! बहुत सुंदर प्रस्तुति ! अंजोरी के साथ-साथ अपनी अन्यमनस्कता भी सर उठाती सी लगने लगती है ! शुभकामनायें !
ReplyDeleteआपकी इस सुन्दर टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार साधना जी। आगे भी इसी प्रकार मेरा उत्साहवर्धन कीजियेगा
Deleteसाभार
बेहद खूबसूरत कविता
ReplyDeleteसादर
धन्यवाद यशवंत।
Deleteकुआशा से कुपित
ReplyDeleteअस्थिर, अबाध्य हृदय
चाहता है पीना दो घूँट
उस पूर्णिमा की कलसी से.
अब तक नहीं लाई तुम अंजुलि भर ?
अंजोरी, तुम आज अन्यमनस्क क्यों हो ?
भावुक और दार्शनिक भाव लिए आत्म मंथन करती सुंदर रचना
बहुत खूब
बधाई
"ज्योति"
सराहना के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ज्योति जी। आगे भी प्रोत्साहन देते रहिएगा
Deleteसाभार
बहत ही सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहत ही सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया अशोक जी
Deleteबहुत ही भावपूर्ण रचना…………………"अब तक नहीं लाई तुम अंजुलि भर ?
ReplyDeleteअंजोरी, तुम आज अन्यमनस्क क्यों हो ?" सुंदर प्रस्तुति |
आभार आनंद जी
Deleteबहुत सुन्दर.
ReplyDeleteशुक्रिया निहार रंजन जी
Deleteलाज़वाब भावमयी अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत आभार कैलाश जी
Deleteबहुत खुबसूरत रचना... चांदनी रात की तरफ ढंडक देती हुई ...
ReplyDeleteBahut Sundar. Reminds me of one of the mum's favorite hindi poem.
ReplyDeleteA very humble thanks Saru...really honoured...
Deletelovely words...nice lines!
ReplyDeletethank you for the kind words Mr.Kalyan Panja
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