Zameer kahta hai awaaz uthao,
magar kaise?
Imaan kahta hai sachchai ka saath do,
magar kaise?
Man karta hai mukhouta noch dein,
magar kaise?
Jo prayasrat hain unka saath dein,
magar kaise?
In prashno mein jab tak jehan uljha rahega,
hamse hamara haq koson door rahega.
Dar jate hain ham ek insaan ki giraftari se,
darte hain ham zimmedari uthane se.
Pad par aseen hain,kuchh bhi kar sakte hain,
agaaz karo sachchai ki to deshdrohi bhi kah sakte hain......
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ज़मीर कहता है आवाज़ उठाओ,
मगर कैसे?
ईमान कहता है सच्चाई का साथ दो,
मगर कैसे?
मन करता है मुखौता नोच दें,
मगर कैसे?
जो प्रयासरत हैं उनका साथ दें,
मगर कैसे?
इन प्रश्नों में जब तक जेहन उलझा रहेगा,
हमसे हमारा हक़ कोसों दूर रहेगा.
डर जाते हैं हम एक इंसान की गिरफ्तारी से,
डरते हैं हम ज़िम्मेदारी उठाने से.
पद पर आसीन हैं,कुछ भी कर सकते हैं,
आगाज़ करो सच्चाई की तो देशद्रोही भी कह सकते हैं......
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