Saptah ke 6 din bohat kathin hote ja rahe the uske liye...roz subah se lekar dopahar tak bachche ka school se lautne ka intezar aur itni lambi prateeksha ka khalipan use kaatne ko daudta tha..par uski duniya badal jati thi jab dopahar ka khana khate khate school ki chatpati batein woh apni maa ke saath sanjha karta tha ...koshish karti ki jitna ho sake ek mitra ki tarah uske saath uske jagat ka ek hissa ban sake....
Us din batoN batoN mein usne bhi apni saheli ki beti ka zikra kiya .. uski saheli jo ki usi ki tarah ek grihani thi bohat aahat hui thi apni beti ki batoN se .... uski beti ko achcha nahin lagta tha ki uski maa ek sadharan snatak hai ... beti ke ek prashna ne bohat vichalit kar diya tha uski saheli ko, jab bachchi ne school se laute hi poochha "maa, kya tumhari bachpan se yahi abhilaasha thi ki tum badi hokar ek 'housewife' banogi?"
Ghatana ka vivaran chupchap sun raha beta achanak chillakar kahne laga " tum mujhe kyon suna rahi ho ? maine kabhi tum se aisa kaha kya? ayah ke paas rakh deti mujhe, kar leti apni akankshayein poori...maine toh mana nahiN kiya tha .. main apni zimmedari khud uthane layak ho gaya hoon..jahaN chahe, jitni der tak chahe naukri kar lo tum..." .
Uske gale mein jaise kuchh atak gaya tha . na nigalte ban raha tha ,na ugalte...jise usne apne jeevan mein hamesha prathamikta di aaj woh aise shabd kitni asaani se kah kar apne kamre mein chala gaya...woh stabdh khadi uw darwaaze ki ore taakti rah gayi...un chand lamhoN mein uski zindagi ....uske ankho ke samne aa khadi hui..aur palatne lagi panne beete hue dino ke ...le gayi use bhootkaal mein jahan rangbirange sapno se ghira rahta tha uska kamra, uski kitabein, uski saansein...
Use laga ek baar apni santaan se poochhe kya isi din ke liye usne apni samast ichchaon ko dhakel diya tha agnikund mein? phir agle hi pal usne mahsoos kiya ,naa," isme na galti meri hai na uski, usne kab kaha tha ki mere liye itna bada balidaan do, tyag karo. aaj apni nakaami ka bojh uske sar daloongi toh uska prativaadi man chup thode hi baithega... umra bhi toh aisi hi hai ...khud ko samajh nahin pa raha hai shayad "..madad bhi toh nahin karne deta . kuch bolo toh ek hi jawab, "sab ataa hai, 'help' nahin chahiye" .. shayad ye rawayiya bhi viraasat mein mila hai usko ... phir bajai garv ke use gussa kyon aa raha hai bete ke upar !!
Jeevan kadachit aisi hi vidambanaon ( vidambana-irony) ka guchcha hai.. suljhate suljhate insaan boodha ho jata hai ... phir budhape mein kisi akeli nirjeev khidki ke saamne baithkar sochta rahta hai apni galatiyon ke baare mein ...ret ki tarah phisalte hue samay ko kabhibaandh nahin saka jo, jeevan ke antim charan mein use ehsaas hota hai apni galatiyon ka aur uska kamzor toot ta hua badan ab chahta hai ki samay ke pahiye ko bhootkaal mein dhakel de ... badal dena chahta hai un paristhitiyon ko jinhone use woh insaan banaya hai jise woh aaine mein roz dekhta hai , ek aisa vyakti jo kunthagrast hai ... isi kuntha ke bojh tale insaan dab jata hai aur uski siskiyan bhi ...
Kaun kahta hai umra ho jane par koi bachchon ki tarah nahin rota? rota hai , bas uski maun siskiyaan sunayi nahi deti aur sookhe hue ashk( tears) nazar nahi ate .... asal mein dikhane se darta hai . apne ho ya paraye, doosre ka dukh koi nahin dekhna chahta ..is tarah bhagta hai jaise ki dukh ' koi sankramak rog ho ...
Aaj uska man bhi dhoondh raha tha koi kona jahan bachchon ki tarah rokar apna man halka kar leti...na jane budhape mein use aisi khidki naseeb hogi bhi ki nahin.. .. par aaj is nawal-kishore (adolescent) ki baton se use ehsaas ho gaya ,har bachche mein ek swabhimaani vayask (adult) aur bade mein nasamajh bachcha chhupa hota hai ...is baat ki sachchai ko parakhne ki shayad awashyakta nahin hai ...samay-asamay paristhitiyan hamein aise satya ke sammukheen kar hi deti hai .......achanak mobile ka karkash swar (cacophonous ringtone) use vaastav (reality) mein lauta laya ... phone utha kar dekha toh uski maa ka number tha .... man shaant hua ... sooraj ki taap se asthir pipaasit (thirsty) sharir ko jaise jharne ka swachh sheetal jal mil gaya ho....
सप्ताह के 6 दिन बहुत ही कठिन होते जा रहे थे उसके लिए. रोज़ सुबह से लेकर दोपहर तक बच्चे का स्कूल से लौटने का इंतज़ार और इतनी लंबी प्रतीक्षा का ख़ालीपन उसे काटने को दौड़ता था. पर उसकी दुनिया बदल जाती थी जब दोपहर का खाना खाते खाते स्कूल की चटपटी बातें वो अपनी माँ के साथ सांझा करता था. कोशिश करती की जितना हो सके एक मित्र की तरह उसके साथ उसके जगत का एक हिस्सा बन सके ...
उस दिन बातों बातों में उसने भी अपनी सहेली की बेटी का ज़िक्र किया..उसकी सहेली ,जो की उसी की तरह एक गृहणी थी बहुत आहत हुई थी अपनी बेटी की बातों से...उसकी बेटी को अच्छा नहीं लगता था कि उसकी माँ सारा दिन घर में ही बैठी रहती है.शायद उसे लज्जा आती थी अपने दोस्तों को यह बताते हुए की उसकी माँ एक साधारण स्नातक है. बेटी के एक प्रश्न ने बहुत विचलित कर दिया था उसकी सहली को, जब बच्ची ने स्कूल से लौटते ही पूछा " माँ क्या तुम्हारी बचपन से यही अभिलाषा थी कि तुम बड़ी होकर एक 'हाउसवाइफ' बनोगी?"
घटना का विवरण चुपचाप सुन रहा बेटा अचानक चिल्लाकर कहने लगा " तुम मुझे क्यों सुना रही हो? मैने कभी तुम से ऐसा कहा क्या? आया के पास रख देती मुझे, कर लेती अपनी आकांक्षाएँ पूरी. मैने तो मना नहीं किया था.मैं अपनी ज़िम्मेदारी खुद उठाने लायक हो गया हूँ, जहाँ चाहे,जितनी देर तक चाहे नौकरी कर लो तुम ".
उसके गले में जैसे कुछ अटक गया था..न निगलते बन रहा था न उगलते .. जिसे उसने अपने जीवन में हमेशा प्राथमिकता दी आज वो ऐसे शब्द कितनी आसानी कह के अपने कमरे में चला गया.… वो स्तब्थ खड़ी उस दरवाज़े की ओर ताकती रह गयी... उन चंद लम्हों में उसकी ज़िंदगी.. उसके आँखों के सामने आ खड़ी हुई... और पलटने लगी पन्ने बीते हुए दिनों के…. ले गयी उसे भूतकाल में जहाँ रंगबिरंगे सपनों से घिरा रहता था उसका कमरा, उसकी किताबें ,उसकी साँसे ...
उसे लगा एक बार अपनी संतान से पूछे क्या इसी दिन के लिए उसने अपनी समस्त इच्छाओं को धकेल दिया था अग्निकुंड में ? फिर अगले ही पल उसने महसूस किया ," ना, इसमे न ग़लती मेरी है न उसकी. उसने कब कहा था की मेरे लिए इतना बड़ा बलिदान दो, त्याग करो. आज अपनी नाकामी का बोझ उसके सर डालूंगी तो उसका प्रतिवादी मन चुप थोड़े ही ना बैठेगा "..उम्र भी तो कुछ ऐसी ही है. खुद को समझ नहीं पा रहा है शायद .मदद भी तो नहीं करने देता. कुछ बोलो तो एक ही जवाब; "सब आता है, 'हेल्प' नहीं चाहिए". शायद ये रवैया भी विरासत में ही मिला है उसको. फिर बजाए गर्व के उसे गुस्सा क्यों आ रहा है बेटे के ऊपर !!
जीवन कदाचित् ऐसी ही विडंबनाओं का गुच्छा है.सुलझाते सुलझाते इंसान बूढ़ा हो जाता है, फिर बुढ़ापे में किसी अकेली निर्जीव खिड़की के सामने बैठकर सोचता रहता है अपनी ग़लतियों के बारे में. रेत की तरह फिसलते हुए समय को कभी बाँध नही सका जो , जीवन के अंतिम चरण में उसे एहसास होता है अपनी ग़लतियों का और उसका कमज़ोर टूटता हुआ बदन अब चाहता है की समय के पहिए को भूतकाल में धकेल दे. बदल देना चाहता है उन परिस्थितियों को जिन्होंने उसे वो इंसान बनाया है जिसे वो आईने में रोज़ देखता है, एक ऐसा व्यक्ति जो कुंठाग्रस्त है. इसी कुंठा के बोझ तले इंसान दब जाता है और उसकी सिसकियाँ भी.
कौन कहता है उम्र हो जाने पर कोई बच्चों की तरह नहीं रोता? रोता है, बस उसकी मौन सिसकियाँ सुनाई नहीं देती और सूखे हुए अश्क नज़र नहीं आते... असल में दिखाने से डरता है. अपने हो या पराए ,दूसरे का दुख कोई नहीं देखना चाहता. इस तरह भागता है जैसे की 'दुख' कोई संक्रामक रोग हो...
आज उसका मन भी ढूँढ रहा था कोई कोना जहाँ बच्चों की तरह रोकर अपना मन हल्का कर लेती.... न जाने बुढ़ापे में उसे ऐसी खिड़की नसीब होगी भी की नहीं. पर आज इस नवल-किशोर की बातों से उसे एहसास हो गया, हर बच्चे में एक स्वाभिमानी वयस्क और बड़े में नासमझ बच्चा छुपा होता है ....इस बात की सच्चाई को परखने की शायद आवश्यकता नहीं है...समय-असमय परिस्थितियाँ हमें ऐसे सत्य के सम्मुखीन कर ही देती है........... अचानक मोबाईल का कर्कश स्वर उसे वास्तव में लौटा लाया... फोन उठा कर देखा तो उसकी माँ का नंबर था... मन शांत हुआ....सूरज की ताप से अस्थिर पिपासित शरीर को जैसे झरने का स्वच्छ शीतल जल मिल गया हो..........
समय के साथ आए बदलाव को कभी कभी समझना आसान नहीं होता ... आज की युवा पीड़ी जज्बातों को नहीं समझ पाती ... माँ के त्याग को नहीं समझ पाती ...
ReplyDeleteनासवा जी ..मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूँ ...जहाँ तक मैंने आज के बच्चों को समझा है वो ज्यादा समझदार और रिश्तों को संभाल कर चलने वालो में से हैं ...बस जरुरत है तो सही सोच और मार्ग-दर्शन की
Deleteआज के युवा ज़ज्बाती ...संवेदनशील और आधुनिक ....हर तरह के समावेश ही अभिभूत हैं
कहानी का मर्म सच में सोचने को मजबूर करता है ...पर आज के परिवेश में भी बच्चे ...अपनी माँ को एक आम गृहणी के रूप में देखना अधिक पसंद करते हैं ...ये बात मैं यूँ ही नहीं कह रही ...इस बात के ठोस तथ्य हैं मेरे पास ......(अगर मेरी किसी भी बात का आपको बुरा लगा हो तो आपसे सच में क्षमा चाहूँगी )
अंजू जी आपका कहना बहुत सही है की आज की पीढ़ी संवेदनशील ,जज्बाती और आधुनिक है। हर हाल में किसी भी परिस्थिति का मुकाबला करने की हिम्मत रखती हैं। पर मार्गदर्शन बहुत ज़रूरी है खासकर उन बच्चों के लिए जो अपने दोस्तों का अनुसरण ज्यादा करते हैं बिना ये सोचे की उनके मातापिता उनकी इच्छाओं को पूर्ण करने की क्षमता रखते हैं भी की नहीं। कुछ बच्चे इतने स्वेछाचारी होते हैं कि सही समय पे उचित मार्गदर्शन ना मिले तो संभवत: बुरी तरह बहक जायेंगे।
Deleteऔर रही बात माँ को गृहणी के रूप में देखकर कर संतुष्ट होने वाली बात तो मेरे अनुसार यह मुद्दा तर्कसंगत है। मेरे इस आलेख में मैंने त्याग और ममता के एक छोटे से पहलु को दर्शाने की कोशिश की है. प्रतिक्रिया के लिये आप सबका तहे दिल से आभार।
समस्त युवा पीढ़ी के बारे में ऐसा कहना उचित नहीं होगा दिगंबर जी। त्याग और ममता को समझ तो पाते हैं ये बच्चे पर इसके पीछे छुपी भावनाओं को नहीं समझ पाते हैं। हमारे लिए भी यही उचित होगा की कर्त्तव्य समझ के जितना हो सकता है करें और जितना भी प्यार और सम्मान मिलता है उसी में संतुष्ट रहे।
Deleteबहुत ही मार्मिक रचना.... !!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (30-06-2013) के चर्चा मंच 1292 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी कहानी ! ना जाने कितनी गृहणियों को इस कथा के दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब दिखाई देगा ! बहुत सुंदर !
ReplyDeleteसंवेदनशील अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद … इन सुन्दर टिप्पणियों से बहुत प्रोत्साहन मिलता है.
ReplyDeleteवक़्त के साथ स्वभाव भी बदलता है .... और यह तो हर माँ के हृदय की बात है .... बहुत संवेदनशील पोस्ट
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी कहानी...आज की पीढ़ी कहाँ समझ पाती है माता पिता के ज़ज्बातों को...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती आभार ।
ReplyDeletebehad samvedanshil rachna
ReplyDeleteअपर्णा जी लगता यह हम सभी की कहानी है विशेषकर एकल परिवारों में. बात भी ठीक है कि इस सबको अपनी गलती ही मानना पड़ेगा. जितनी अपेक्षाएं उतना ज्यादा दुःख.
ReplyDeleteबेहद भावपूर्ण प्रस्तुति,
हृदयस्पर्शी रचना ....माँ क्या होती है ...समझना आज के बच्चों के लिए
ReplyDeleteज़रा कठिन होता है....
मार्मिक भावाभिवय्क्ति.....
ReplyDeletebhavpoorna man mei sawal paida karti aur bhavishya ko aashankit karti lagi rachna aapki ..bahut ssare sawal bhi uth khade hue hain ... jawab agar maa degi to selfish ho jaati hai ... achha vishay chuna aapne
ReplyDeleteमार्मिक अभिव्यक्ति , बहुत बहुत आभार ,
ReplyDeleteयहाँ भी पधारे
http://shoryamalik.blogspot.in/
आप सभी का तहे दिल से आभार..
ReplyDeleteWASTVIKTAON KA MARMIK WARNAN ....TOUCHING ...
ReplyDeleteAppreciate your feedback Dr.Nisha Maharana.. thanks so much
ReplyDeleteगहराई से देखा जाये तो वास्तव में कोई किसी के लिए त्याग नहीं करता, हर माँ अपनी क्षमता के अनुसार अपना कर्त्तव्य निभाती है, अपने प्रेम के लिए किसी प्रतिदान की आशा करके क्या वह स्वयं ही उसका अपमान नहीं करती है .
ReplyDeleteअनीता जी इस धरती पर आज भी कुछ ऐसे लोग मौजूद हैं जो दूसरों के लिए त्याग करते हैं ,पर हाँ जहाँ तक एक 'माँ' का सवाल है माँ बनने के बाद एक औरत का जीवन नए सिरे से शुरू होता है … वह अपने स्वार्थ को परे रख अपनी संतान के सुख शांति को प्राथमिकता देना सीख जाती है .उसका सामान्यतम त्याग भी उसका प्रेम और दुलार ही है.बहुत बहुत आभार इस विचारशील, सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए
Delete--सादर
जीवन का सच यही है
ReplyDeleteसंबंधों को जीना सहज नहीं है बहुत कुछ भोगना,सुनना,सहना पड़ता है
मार्मिक अभिव्यक्ति
सादर
ji Jyoti ji... abhaar
Deleteबहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति....
ReplyDeletedhanyavad Kailash ji
Deletemarmik aur sach
ReplyDeletekhush raho beta aur isi tarah khoob likho
Bohat bohat shukriya maami @Ismat Zaidi... thanks a lot for your blessings and encouragement :)
ReplyDeletemarmsparshi prastuti ..
ReplyDeletebohat bohat shukriya Kavita ji....
ReplyDeleteकल 15/07/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
Saharsh abhar Yashwant ji
Deleteह्रदय-स्पन्दन के सभी तार झंकृत कर दिए। बहुत मार्मिक ..........
ReplyDeletesarahna ke liye bohat bohat shukriya Kaushal ji
Deleteman ko jhakjhorti, bahut kuch sochne ko badhya kart, atyant samvedan sheel rachna ...
ReplyDeleteapki is tippani se bohat protsahan mila..bohat bohat shukriya apka Manju ji.
Deleteमार्मिक भावाभिवय्क्ति.
ReplyDeleteabhar Sushma ji
Deleteबहुत ही मार्मिक रचना.... !!
ReplyDeleteप्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया अशोक जी
Deleteमार्मिक कहानी ! दिल को छू गई !अपर्णा जी !!
ReplyDeleteआपकी इस कथा की मार्मिकता दिल को छू गई !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Delete
ReplyDeleteनारी जीवन ही अपनी इच्छाओं का दमन करना है। त्याग और समर्पण के बीच रहना है।
आज हर क़दम पे जनरेशन गैप देखने को मिलता है। ऐसे में ज़िन्दगी जीना वाकई में एक समझौता करना ही है, जिसने कर लिया वो कुंठाओं से बच गया। जो न कर पाया वो पल पल विरह वेदना को सहता है।
एक मार्मिक लेख़ परन्तु सत्य
बहुत सही कहा आपने। टिप्पणी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
Deleteसच बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना जो आज के सन्दर्भ मे बिलकुल खरी उतरती है
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया शांति जी। एक कोशिश की है ताकि जीवन,खासकर एक माँ के जीवन का एक पहलू प्रस्तुत कर सकूं।
Deleteलेख निस्संदेह ह्रदयस्पर्शी परन्तु समालोचनाओं से मैं सहमत नहीं।
ReplyDeleteमूलत: वर्तमान चकाचौंध से परिपूर्ण भौतिकता में आकंठ डूबा वर्तमान वातावरण,कान्वेंट प्रणाली प्रचिलित सहशिक्षा ने युवाओं की सोच को हम से मैं में समेट डाला है और हमने ही पेड़ तो बबूल का लगाया लेकिन फल आम का चाहते हैं इसीलिए हम स्वयं कुंठित को बच्चों को कोसते रहते हैं।
प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया
Deleteबहुत मार्मिक
ReplyDeleteशुक्रगुज़ार हूँ शालीमा जी....
DeleteNice ! If you have time, read one of my maiden attempts : http://lake-tales.blogspot.in/2012/08/birthday.html
ReplyDeletesure Ananya . thanks for dropping by
Deleteman ko chhu liya ....bahut sundar
ReplyDeleteबहुत सुन्दर , संवेदनशील
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