Monday, July 09, 2012

BETIYAAN - PARAYA DHAN !! / बेटियाँ - पराया धन !!

आँसूं बह रहे हैं देखो ,कोशिश किये बिन
शहनाई  और मौसिकी,गुलशन सा सजा  आँगन

बाबुल देखो लोग कह रहे , मैं  हूँ अमानत उनकी


शादी के बाद बेटियाँ पराया धन कहलाती  हैं....क्या कोई जानता  है किसने कहा था ये? एक शरीर एक स्थान  से दूसरे स्थान चला गया इसका मतलब पराया हो गया?आज कितने दिन महीने गुज़र गए हैं ,मैंने अपनी एक अलग सी दुनिया बसा ली है.मेरे इस छोटे से सुसज्जित घोंसले में मैं अपने पति और बेटे के साथ बहुत खुश हूँ.पर जब भी मेरी तबियत खराब होती है मुझे माँ  की याद आती है, गरम तेल का छींटा हाथ पे आकर गिरता है और  कोई नहीं होता जब  आसपास, जो बरनौल  लगा दे ,तब माँ की याद आती है,पिताजी से एक आईसक्रीम माँगती थी तो दो लाकर देते थे.तब कभी मैंने ये सोचा ही नहीं की वो अपने हिस्से की आईसक्रीम मुझे दे रहें हैं .

आज जब ये बातें मुझे समझ में आ गयी हैं तो मैं निरुपाय  हूँ.ऐसा नहीं की मैं किंकर्तव्यविमूढ़  हूँ,मैं उनसे बहुत दूर हूँ.किसीने कमरे से आवाज़ लगायी चाय बनाओ और मैं दौड़ कर  रसोईघर चली गयी ऐसा अब नहीं हो सकता.जिस दिन मेरी विदाई थी विभिन्न प्रकार के रोने के स्वरों में से छन के एक बात मेरे कानों तक पहुंची थी "कल से सुबह की पहली चाय कौन बनायगा?"रोज सुबह जब  चाय -कॉफी बनाती हूँ यह  प्रश्न ज़हन में हलकी सी ठक-ठक  करता  है .

मेरा बेटा जब अपने दोस्तों के साथ खेलता है मुझे बाबुल के घर बिताए बचपन के दिन याद आते है,उनके झगड़ों   में मैं अपना बचपन ढूँढती हूँ.जब दो भाई बहन खेलते हैं या झगड़ते  हैं मुझे अपने भाई बहन याद आते हैं.क्या मैं सचमुच परायी हो गयी हूँ?एक देह के स्थानांतरण से किसी चीज़ से लगाव कम नहीं होता इसका प्रमाण है मेरा हर पल ,हर छोटी सी घटना में स्मृतियों  का उमड़ के आना.
बचपन में किसने गुड्डे गुड़िया  का खेल ना खेला होगा! आज बार्बी से खेलते हैं हम तो रुई और पुरानी  साड़ियों से गुड़िया बनाते थे.उनके कपड़े सिलते थे.जब उनकी शादी होती थी माला में फूल भी खुद ही पिरोते थे .तब शायद समझते नहीं थे,सुई धागा हाथ में लिए माला पिरोने के लिए बेताब हमारा निष्पाप मन असल में उन सुनहरे पलों को ही तो पिरोता था.मैं तो आज भी उन जुही और गेंदे के फूलों की महक महसूस कर सकती हूँ.

विवाहपूर्व जितना भी समय हम स्त्रियाँ अपने मायेके में गुजारती हैं उन अनगिनत पलों का महत्व वास्तव में हम विवाहोपरांत ही समझ पातीं  हैं.माँ बाप किस प्रकार कठिन आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद हमारी मुस्कान  की  खातिर हमारी इच्छाओं  को पूर्ण करते थे ये हम तब समझ पातीं  है जब खुद माँ बनती हैं.
मैं तो आज भी जब कोई कविता लिखती हूँ तो अपनी माँ से ठीक उसी बचपन वाली उत्सुकता से पूछती हूँ की उन्हें कैसी लगी .मैं  तो उनकी नज़रों में बड़ी हुई ही नहीं और ना होना चाहती  हूँ.
हम सबके भीतर  एक बच्चा है,उसे ज़िंदा रखना बहुत ज़रूरी है.अपने बच्चों को भी समझने के लिए हमें कई बार बच्चा बनना पड़ता है,बच्चों के साथ बच्चा बन जाने से उनकी  भावनाओं को समझना आसान हो जाता है .मेरी माँ भी तो ऐसा ही करती थीं ,मुझे समझने की कोशिश,पूर्ण धैर्य के साथ.बचपन में डाँट खाना ,मार खाना  सब स्वाभाविक है अगर सीमा उल्लंघन ना कर जाये तो.लिखते लिखते एक और बात याद आ गयी.मा जब डाँटती थीं तो रूठ कर मैंने उन्हें सौतेली भी कहा था.आज मेरा  बेटा ठीक यही अपशब्द कहता है जब मैं अपना धीरज खो बैठती हूँ.बहुत अचरज होता है!!

मेरे अपरिपक्व मस्तिष्क में इतनी क्षमता नहीं थी कि माँ के गुस्से का कारण समझ सकूं या उसके उत्पत्ति का स्त्रोत ढूँढकर समस्या का निदान कर सकूं.आज बहुत देर हो गयी है. वो अक्सर कहतीं थीं -'जब खुद  माँ बनोगी तब समझोगी माँ बनने की पीड़ा  क्या होती है'.
कहते हैं ना हर अच्छे वस्तु का मूल्य  उसके टूट जाने पर या छिन जाने पर ही ज्ञात होता है.माँ का प्यार भी एक ऐसा अमूल्य खज़ाना है.बेटियाँ कभी परायी नहीं होतीं.वास्तव में विवाह के पश्चात ही माँ और बेटी का रिश्ता मज़बूत  बनता  है.अपने जिस बाबूजी से वो शादी से पूर्व डरी सहमी रहती थी,कन्यादान के वक्त उसी पिता के आँसूं उसे उम्रभर  के लिए एक अदृश्य एवं मज़बूत धागे से बाँध देते  है.
भाई बहिन में अब झगड़े नहीं होते,बल्कि ससुराल में कोई कष्ट दे  तो बहिन की रक्षा करने भाई  दौड़ा चला आता है .

खुशनसीब होती हैं ऐसी बेटियाँ जो अपने संसार धर्म से वक्त निकाल कर ,गुरुजनों की सेवा करने में सक्षम होतीं  हैं.जो सेवा  नहीं कर पातीं वो भी बदनसीब नहीं होतीं.उनकी पूजा अर्चना और दुआ में उन्हें जन्म देने वाले ये दो अतीव सुन्दर मनुष्य अवश्य रहते हैं..........................

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